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Showing posts from September, 2012
पोशाक की तरह यार बदलता हूँ.. लम्बी उड़ान के परिंदे शाखों पे घर नहीं बनाते..

बडे शहरों के अपने तर्क-ओ-तह्जीब होतें हैं.

बडे शहरों के अपने तर्क-ओ-तह्जीब होतें हैं . समझ पाये तो अच्छा वर्ना अजीब होते हैं. जिसे चाहोगे पास वो हमेशा दूर मिलेगा. और अजीब अजीब लोग करीब होते हैं. मेहफिलों के उसूल भी निराले हैं यहाँ . झप्पियाँ देकर भी सब रकीब होते हैं.. - © बख्त फ़क़ीरी "देश रत्न "

मेरी आँखों में खौफ़ नहीं मिलेगा.

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मेरी आँखों में खौफ़ नहीं मिलेगा. मेरा जिस्म आज भीगा है जो तुम देख पा रहे हो हो सकता है कल ये गलने लगे और परसों सड़ जाये. और मेरे सड़े जिस्म से बदबू आने लगे. मुझे मालूम है ये जो मीडिया के कैमरे मुझे लगातार घूर रहे हैं. ये मेरे सड़े जिस्म की नुमाइश करने ज़रूर आयेंगे. तब तुम देखना -- मेरी चमरियों में शायद सिलवटें पड़ी होंगी. पाव भर मांस बाहर लटकने लगा होगा. मेरे नाख़ून का रंग सफ़ेद हो चुका होगा.. मेरे इस सफ़ेद रंग को गौर से देख लेना. ये रंग मैं हर सियासतदार के कुर्ते पे छोड़ कर जाऊंगा. और एक बात -- तुम्हें मेरे सिकुड़े जिस्म के झुर्रीदार चेहरे पे दो आँखें भी मिलेंगी.. और तब तुम देखोगे -- तुम्हें मेरी आँखों में खौफ़ नहीं मिलेगा.. - © बख्त फ़क़ीरी "देश रत्न "  

Dil khareed-farokh ki riwayat achhi lagi.-- (c) बख्त फ़क़ीरी "देश रत्न "

Dil khareed-farokh ki riwayat achhi lagi. Dil mehnga mera ye shikayat achhi lagi. Aapne baanta zism bachakar dil ko sambhalkar. Sach kehta hun aapki ye kifayat achhi lagi. Dil bechne ka hunar seekho miyan, ye baazar hai. Buzurgon ki kahi ye hidayat achhi lagi. Mera dil lauta diya tune bagair istemaal ke. Khuda kasam aapki ye inayat achhi lagi.. -- © बख्त फ़क़ीरी "देश रत्न "

Halal naa kar jhatke se maar de - -- (c) बख्त फ़क़ीरी "देश रत्न "

Halal naa kar jhatke se maar de Aise kar qatl pal me sanwar de. Qatl ki taarikh ka faisala ho chuka. Nehla dhula puraane kapde utaar de. Aakhiri tamanna aaj v pehli hi khwahish hai Ik raat lipat jee bhar ke pyar de. (To be contnd..)  -- © बख्त फ़क़ीरी "देश रत्न "

माँ के आँचल में संवर जाता हूँ - - (c) बख्त फ़क़ीरी "देश रत्न " "Desh Ratna

जब भी छुट्टियों में घर जाता हूँ माँ के आँचल में संवर जाता हूँ आँगन की तुलसी को करता हूँ सलाम लपेट के माटी मैं निखर जाता हूँ. भूख मिटती है बागीचे में आम से. नहाने को सुबह नहर जाता हूँ. शहर के दोस्त बस चैट पे मिलते, गाँव में दुश्मनों के भी घर जाता हूँ. लौटने का दिन जब होता है मुक़रर  रोती है माँ और ठहर जाता हूँ. बाबूजी दे देते हैं बटुआ निकाल कर. बख्त तभी पूरा का पूरा मर जाता हूँ. . -- © बख्त फ़क़ीरी "देश रत्न "

मशरिक से मग़रिब कोई तलबगार नहीं मिलता

मशरिक से मग़रिब कोई तलबगार नहीं मिलता. कांच मिलते हैं जंगार नहीं मिलता. कद की नुमाइश किस्से करूँ ऐय बख्त मुफलिस शहर में कोई शहरयार नहीं मिलता ..-- © बख्त फ़क़ीरी "देश रत्न "